Rahulwebtech.COM-Online Share Marketing, Internet Tips aur Tricks in Hindii प्रारम्भिक शिक्षा की पृष्ठभूमि - BACKGROUND OF ELEMENTARY EDUCATION IN HINDI

प्रारम्भिक शिक्षा की पृष्ठभूमि - BACKGROUND OF ELEMENTARY EDUCATION IN HINDI

वैदिक युग में शिक्षा (EDUCATION IN VEDIC PERIOD)

वैदिक युगीन शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods of Vedic Period) 

वैदिक कालीन शिक्षण विधियाँ निम्नलिखित थीं-

(1) प्रवचन विधि-गुरु छात्रों को धार्मिक ग्रन्थों के प्रवचन देते थे। छात्र उन प्रवचनों को ध्यान से सुनते थे तथा उनका अनुकरण करते थे। गुरु शिष्यों के सम्मुख वेदमन्त्रों का उच्चारण करते थे। शिष्य उन्हें बार-बार दोहरा कर कण्ठस्थ करते थे।

प्रारम्भिक शिक्षा की पृष्ठभूमि - BACKGROUND OF ELEMENTARY EDUCATION IN HINDI

(2) व्याख्यान विधि-शिष्यों को वेदों के मन्त्र कण्ठस्थ कराने के बाद गुरु उसकी व्याख्या कर उसका अर्थ एवं भाव स्पष्ट करते थे। अर्थ स्पष्ट करने के लिए उदाहरणों का प्रयोग करते थे।

(3) प्रश्नोत्तर, शास्त्रार्थ और वाद-विवाद विधि-वैदिक काल में गुरु उपदेश देते थे, व्याख्यान देते थे, साथ ही छात्रों की शंका का समाधान करने के लिए बीच-बीच में प्रश्न भी पूछते थे। इन प्रश्नों के माध्यम से छात्रों की समस्याओं का निवारण किया जाता था। शिष्यों और गुरुओं के बीच वाद-विवाद का आयोजन भी किया जाता था। विद्वानों के सम्मेलनों का आयोजन किया जाता था जिसमें विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ होता था। शिष्य इन सबको सुनकर अपने ज्ञान में वृद्धि करते थे ।

(4) तर्क विधि - तर्कशास्त्र जैसे विषयों के अध्ययन के लिए तर्क विधि का प्रयोग किया जाता था जिससे छात्र विषय के अन्तर्गत समाहित तथ्यों को समझ सके ।

(5) कहानी विधि-गुरु शिष्यों को शिक्षाप्रद कहानियां सुनाते थे तथा बाद में शिष्यों से पूछते थे कि उन्हें इस कहानी से क्या शिक्षा मिली। इस विधि का प्रयोग शिक्षण को रुचिकर बनाने के लिए किया जाता था।

वैदिक युगीन मुख्य शिक्षा केन्द्र (Main Educational Centres in Vedic Period)

वैदिक युग में तीर्थ स्थान धर्म प्रचार के केन्द्र होने के साथ-साथ शिक्षा केन्द्रों के रूप में विकसित हुए जो कि मिथिला, तक्षशिला, केकय, पाटलिपुत्र, काशी, प्रयाग, अयोध्या, कल्याणी एवं कन्नौज आदि थे। वैदिक युगीन मुख्य शिक्षा केन्द्र निम्नलिखित है- 

(1) मिथिला- मिथिला मध्य भारत के तत्कालीन मिथिला राज्य की राजधानी थी। यहाँ धर्म और दर्शन के विद्वानों के सम्मेलनों का आयोजन होता था।

(2) तक्षशिला- तक्षशिला गांधार राज्य की राजधानी थी। यहाँ संस्कृत भाषा, साहित्य, व्याकरण, चारों वेदों, धर्म तथा दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान थे। कोई विद्वान संस्कृत भाषा एवं साहित्य के लिए प्रसिद्ध था तो कोई विद्वान धर्म एवं दर्शन की शिक्षा के लिए।

(3) केकय-केकय वैदिक काल में शिक्षा का मुख्य केन्द्र था। यहाँ संस्कृत भाषा, व्याकरण, साहित्य, वेद, धर्म और दर्शन की शिक्षा दी जाती थी। ऐसा उल्लेख मिलता है कि केकय नरेश बहुत बड़े विद्वान थे। उनके राज्य में एक भी व्यक्ति अशिक्षित नहीं था।

(4) काशी - भारत के पूर्वी भाग में स्थित काशी भी प्रारम्भ से ही विद्वानों तथा ऋषियों के बीच शास्त्रार्थ का मुख्य केन्द्र रहा है। काशी के अश्वपति एवं अजातशत्रु ब्रह्म विद्या के पंडित थे। उन्होंने अपने शासन काल में विद्वानों को आमन्त्रित कर यहाँ पर आत्मा परमात्मा और ब्रह्म के स्वरूप पर शास्त्रार्थ कराया था।

(5) प्रयाग - यह भारत के पूर्वी भाग में स्थित है। वैदिक काल में यहाँ पर अनेक ऋषि आश्रम थे। ये आश्रम धर्म और दर्शन शिक्षा के मुख्य केन्द्र थे। यहाँ बड़े-बड़े विद्वान अपनी शंका-समाधान के लिए आते थे।

(6) कन्नौज- यहाँ पर धर्म, दर्शन तथा वेदों का अध्ययन कराया जाता था। यहाँ पर अपने-अपने क्षेत्र में विशेष योग्यता रखने वाले विद्वान होते थे। वैदिक काल में यह शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र था ।

(7) अयोध्या-यह भगवान श्री राम की जन्मभूमि है। यहाँ पर चारों वेद, साहित्य एवं व्याकरण की शिक्षा की उचित व्यवस्था थी।

शिष्य के प्रति गुरु के कर्तव्य (Duties of the Teacher for Pupil) 

शिष्य के प्रति शिक्षक के कर्त्तव्यों को निम्न बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) शिष्यों के स्वास्थ्य की देखभाल करना तथा अस्वस्थ होने पर उपचार की व्यवस्था करना।

(2) शिष्यों को उनकी योग्यतानुसार या वर्णानुसार विशिष्ट विषयों की एवं क्रियाओं की शिक्षा देना ।

(3) शिक्षा के उपरांत भी शिष्यों की शंका का समाधान करना तथा मार्गदर्शन करना ।

(4) शिष्यों के आवास, भोजन एवं वस्त्रादि की व्यवस्था करना । 

(5) शिष्यों को सदाचरण की शिक्षा देकर उनका चरित्र-निर्माण करना।

(6) शिष्यों का सर्वागीण विकास करना ।

उत्तर वैदिक कालीन शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Education in Post - Vedic Period) 

इस युग में शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे-

(1) धार्मिकता को बढ़ावा देना - इस युग में छात्रों को धार्मिक ग्रन्थ पढ़ाये जाते थे और उनका अनुसरण करने के लिए कहा जाता था जिससे छात्रों के अन्दर धार्मिक गुणों का विकास हो सके।

(2) ब्राह्मण ग्रन्थों का अनुसरण करना - इस युग में छात्रों को ब्राह्मण द्वारा लिखे गये ग्रन्थों का अध्ययन कराया जाता था साथ ही उनके अनुसरण पर भी जोर दिया जाता था।

(3) चरित्र-निर्माण करना- शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य छात्रों का चरित्र-निर्माण करना था जिससे वह समाज में अपना मान-सम्मान बढ़ा सकें ।

(4) संस्कृति का संरक्षण करना- छात्रों को भारतीय संस्कृति का ज्ञान प्रदान किया जाता था। उन्हें अपनी संस्कृति की किस प्रकार रक्षा करके उसे बढ़ाना है, इसके विषय में ज्ञान दिया जाता था। जिससे छात्र अपनी संस्कृति की रक्षा कर सकें।

(5) नैतिक मूल्यों का ज्ञान करना-उत्तर वैदिक युग में छात्रों को नैतिक मूल्यों का ज्ञान प्रदान किया जाता था जिससे छात्रों के अन्दर दूसरों का सम्मान व आदर करने का गुण तथा दूसरों की मदद करने का गुण उत्पन्न हो सके।

वैदिक शिक्षा प्रणाली के गुण (Merits of Vedic Education System) 

वैदिक शिक्षा प्रणाली के मुख्य गुण निम्न प्रकार हैं- 

(1) शिक्षा की निःशुल्क व्यवस्था-वैदिक युग में गुरुकुलों में छात्रों से शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार का कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। शिक्षा की व्यवस्था भिक्षा मांगकर, दान में प्राप्त वस्तुओं द्वारा की जाती थी। गुरु और शिष्य दोनों इसमें अपना सहयोग देते थे।

(2) अनुशासित जीवनचर्या - वैदिक युग में गुरुकुल के नियम कठोर होते थे। गुरु और शिष्य दोनों इन नियमों का पालन आदरपूर्वक करते थे। गुरु स्वयं भी अनुशासित जीवन जीते थे जिससे छात्रों को भी अनुशासित जीवन जीने की शिक्षा मिलती थी।

(3) गुणवत्तापूर्ण पाठ्यचर्या - वैदिक युग में छात्रों के आध्यात्मिक, सामाजिक और नैतिक तीनों पक्षों के विकास पर बल दिया जाता था। इनकी प्राप्ति के लिए पाठ्यचर्या में परा विद्या और अपरा विद्या को स्थान दिया गया था। उस समय छात्रों को धार्मिक ग्रन्थ, वेद, पुराण, उपनिषद्, साहित्य, धर्म, दर्शन, नीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी जो छात्रों का चहुँमुखी विकास करने में सहायता करती थी।


बौद्ध कालीन शिक्षा (BUDDHIST PERIOD EDUCATION)

बौद्ध युगीन शिक्षा की विशेषताएँ (Characteristics of Education in Buddhist Period) 

बौद्ध काल में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा एक नई शिक्षा प्रणाली का विकास किया गया जिसे बौद्ध शिक्षा प्रणाली कहते हैं। इस शिक्षा की विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित है-

(1) शिक्षा प्रणाली बौद्ध काल में शिक्षा - मठों व विहारों में प्रदान की जाती थी। प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक शिक्षा प्रदान की जाती थी। ये मठ और विहार नगरों में स्थापित होते थे। अनेक स्थान जैसे नालन्दा, विक्रमशिला व वल्लभी आदि उच्च शिक्षा के केन्द्र थे । नालन्दा अन्तर्राष्ट्रीय उच्च शिक्षा का केन्द्र था। शिक्षा के द्वार समान रूप से सभी समुदायों के लिए खुले थे।

(2) बौद्ध कालीन शिक्षण संस्थाएं (मठ एवं विहार) - बौद्ध मठ और विहार बड़े-बड़े नगरों में खुले स्थानों पर बनाए गये थे। इन मठों और विहारों के भवन बहुत विशाल थे। उनमें भव्य कक्षा-कक्ष थे, गुरु एवं शिष्यों के लिए छात्रावास एवं बड़े-बड़े पुस्तकालय उपलब्ध थे। इनमें प्राथमिक व उच्च दोनों प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था थी।

(3) पब्बजा या प्रवज्या संस्कार-प्रवेश के समय छात्रों का पब्बजा संस्कार सम्पन्न किया जाता था। सभी जातियों के बालकों को मठों एवं विहारों में प्रवेश दिया जाता था। प्राथमिक शिक्षा में प्रवेश की आयु छः वर्ष होती थी। पब्बजा का अर्थ है- बाहर जाना अर्थात शिक्षा प्राप्त करने के लिए घर से बाहर जाना । मठ का सबसे बड़ा भिक्षु इस संस्कार को सम्पन्न कराता था ।

(4) अध्ययन काल-बौद्ध काल में कुल मिलाकर बीस वर्ष का अध्ययन काल होता था जिसमें आठ वर्ष पब्बजा तथा बारह वर्ष उपसम्पदा का समय होता था।

(5) शिक्षण विधियाँ- बौद्ध काल में प्रमुख शिक्षण विधियों में अनुकरण विधि, व्याख्यान विधि, वाद-विवाद विधि, तर्क विधि, प्रश्नोत्तर विधि, स्वाध्याय विधि, प्रदर्शन विधि, अभ्यास विधि, सम्मेलन एवं शास्त्रार्थ विधि प्रमुख थीं।

(6) पाठ्यक्रम-बौद्ध काल के पाठ्यक्रम में संस्कृत, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष, गणित, न्याय आदि मुख्य विषय थे। विभिन्न प्रकार के धर्मों जैसे- हिन्दू धर्म, जैन धर्म के साथ-साथ बौद्ध धर्म की भी शिक्षा दी जाती थी। इसके अतिरिक्त सैनिक शिक्षा, धनुर्विद्या, कला-कौशल आदि की शिक्षा का भी प्रबन्ध था ।


बौद्ध युगीन शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Education in Buddhist Period)

बुद्ध ने सद्जीवन के लिए जो अष्टांगिक मार्ग बताए थे, बौद्ध काल में वे ही शिक्षा का उद्देश्य बन गए। इसके अतिरिक्त आगे चलकर जिन उद्देश्यों को स्थान प्राप्त हुआ, वे निम्नलिखित थे-

(1) चरित्र-निर्माण करना - बौद्ध काल में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालकों का चरित्र-निर्माण करना था चरित्र-निर्माण हेतु आत्म संयम, करूणा और दया को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था। जो बालक इन गुणों का पालन करता था वह चरित्रवान माना जाता था।

(2) ज्ञान का विकास- बौद्ध काल के अनुसार संसार के समस्त दुःखों का एक मात्र कारण अज्ञानता को माना गया था। अतः इस काल में छात्रों के द्वारा सच्चे एवं सार्थक ज्ञान के विकास पर बल दिया जाता था। बौद्ध काल में सच्चे ज्ञान से अभिप्राय धर्म एवं दर्शन के चार सत्यों के ज्ञान और उसी के अनुरूप आचरण करने से था।-

(3) व्यक्तित्व का विकास-आत्म संयम, आत्म निर्भरता, आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, करूणा तथा विवेक जैसे सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गुणों का विकास कर छात्र के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना बौद्ध कालीन शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था।

(4) सर्वांगीण विकास - इस शिक्षा प्रणाली में छात्र के शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक विकास को ध्यान में रखकर शिक्षा दी जाती थी अर्थात् छात्र का सर्वांगीण विकास करना इस शिक्षा का उद्देश्य था ।

(5) विभिन्न व्यवसायों की शिक्षा-विभिन्न व्यवसायों की शिक्षा के अन्तर्गत छात्र को विभिन्न प्रकार के कला-कौशलों एवं व्यवसायों जैसे- कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि की शिक्षा दी जाती थी।

(6) बौद्ध धर्म की शिक्षा- यद्यपि बौद्ध शिक्षा प्रणाली में समस्त धर्मों एवं दर्शनों से सम्बंधित शिक्षा की व्यवस्था की गई थी परन्तु सर्वाधिक बल बौद्ध शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार पर दिया जाता था। अतः इस काल में छात्रों के लिए बौद्ध धर्म की शिक्षा को इसके उद्देश्यों में सम्मिलित किया गया था।

बौद्धकालीन उच्च स्तरीय शिक्षा व्यवस्था

उच्च स्तर- प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद उच्च शिक्षा में योग्य छात्रों को ही प्रवेश दिया जाता था। इसकी सामान्य अवधि बारह वर्ष होती थी। इसमें पाली भाषा, संस्कृत भाषा, प्राकृत भाषा और साहित्य, व्याकरण, न्यायशास्त्र, अर्थशास्त्र, खगोलशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, कला, कौशल, व्यवसाय भवन निर्माण, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, वैदिक धर्म ज्योतिष शास्त्र आदि सभी विषयों का ज्ञान प्रदान किया जाता था।

(1) सामान्य परिचय- उच्च शिक्षा के द्वार प्रत्येक धर्म और जाति के बालकों हेतु खुले थे। इस शिक्षा के मुख्य केन्द्र मठ थे तथा सभी मठों में समान विषयों की शिक्षा नहीं दी जाती थी।

(2) प्रवेश एवं अवधि - प्राथमिक शिक्षा के समाप्त होने पर उच्च शिक्षा का प्रारम्भ होता था अर्थात् बालक इस शिक्षा का आरंभ 12 वर्ष की आयु में करता था। अध्ययन की अवधि 12 वर्ष थी ताकि 25 वर्ष की आयु में छात्र किसी व्यवसाय को अपनाकर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर सके।

(3) पाठ्यक्रम–पाठ्यक्रम दो भागों में विभाजित था. धार्मिक एवं लौकिक। भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों के लिए धार्मिक पाठ्यक्रम था। इसमें उन्हें धार्मिक एवं जीवनोपयोगी दोनों प्रकार की शिक्षा प्रदान की जाती थी। लौकिक पाठ्यक्रम जन साधारण के लिए होता था। इस शिक्षा का उद्देश्य. सुयोग्य नागरिक बनाना एवं आर्थिक और सामाजिक जीवन हेतु तैयार करना था ।

(4) शिक्षण विधियाँ-स्वाध्याय विधि, व्याख्यान विधि, देशाटन, तर्क एवं वाद-विवाद आदि इस स्तर की प्रमुख शिक्षण विधियाँ थीं।

(5) शिक्षा का माध्यम- इस स्तर पर भी जन साधारण की शिक्षा का माध्यम पाली भाषा ही थी।


बौद्ध कालीन शिक्षण-विधियाँ (Teaching Methods of Buddhist Period)

बौद्ध कालीन शिक्षण विधियों का वर्णन निम्न प्रकार है- 

(1) अनुकरण विधि-सर्वविदित है कि शिक्षण की यह विधि पूर्णतः स्वाभाविक है। इस काल में प्राथमिक स्तर पर इस विधि का प्रयोग किया जाता था। शिक्षक (मिक्षु) के वर्ण (अक्षर) उच्चारण का छात्र अनुकरण करते थे। शिक्षको द्वारा अक्षरों को लिखकर दिखाया जाता था जिसका अनुकरण कर अभ्यास द्वारा छात्र लिखना सीखते थे।

(2) प्रश्नोत्तर विधि-यह भी मूलत सीखने की स्वाभाविक विभि है। छात्र कब, क्यों, कैसे, कहाँ आदि जैसे प्रश्नों को शिक्षकों से पूछते थे तथा शिक्षक उसका उत्तर देते थे। इसके द्वारा छात्र अपनी समस्या का समाधान करते थे।

(3) व्याख्या विधि-इस विधि का प्रयोग उच्च शिक्षा में किया जाता था। शिक्षक छात्रों को विषय वस्तु का अर्थ स्पष्ट कर उसकी सविस्तार व्याख्या करते थे।

(4) तर्क एवं वाद-विवाद विधि-बौद्ध काल में विवादास्पद विषयों का शिक्षण वाद-विवाद और तर्क विधियों के माध्यम से होता था। अपने-अपने मत की पुष्टि हेतु विभिन्न प्रकार के प्रमाण प्रस्तुत किए जाते थे।

(5) व्याख्यान विधि-बौद्ध काल में उच्च स्तर की शिक्षा में इस विधि का प्रयोग किया जाता था। विभिन्न विषयों से सम्बंधित विषय अधिकारियों को बुलाकर व्याख्यान कराए जाते थे। इस विधि के द्वारा शिष्य अपनी शंका का समाधान कर उच्च और स्पष्ट शिक्षा गृहण करते थे।

(6) देशाटन - भिक्षु शिक्षा में मुख्य रूप से इसी विधि का प्रयोग किया जाता था। भिक्षुओं को देशाटन के अवसर उपलब्ध कराए जाते थे जिससे उन्हें वास्तविक जगत को समझने, मानव समाज की वास्तविक स्थिति को जानने के अवसर प्राप्त हो साथ ही बौद्ध धर्म के प्रचार का प्रशिक्षण भी दिया जाता था।

(7) स्वाध्याय विधि- चूँकि इस काल में लेखन कला का उद्भव एवं विकास हो चुका था, अतः मुख्य ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ भी छात्रों के अध्ययन हेतु तैयार की जा चुकी थीं। परिणामतः अध्ययन की स्वाध्याय विधि का विकास हुआ। यह विधि उच्च शिक्षा के छात्रों हेतु थी ।


बौद्धकालीन शिक्षा के प्रमुख केन्द्र (Main Centres of Education in Buddhist Period) 


कालीन शिक्षा के मुख्य केन्द्र निम्नलिखित थे-

(1) नालन्दा विश्वविद्यालय - यह विश्वविद्यालय बिहार प्रदेश के पटना नगर से लगभग 40 मील दक्षिण पश्चिम पर स्थित था। यह महात्मा बुद्ध के प्रथम शिष्य सारिपुत्र की जन्मस्थली होने के कारण प्रसिद्ध था। यहाँ पर विहार का निर्माण बौद्ध सम्राट अशोक ने द्वितीय शताब्दी में कराया था। यह तृतीय शताब्दी में शिक्षण केन्द्र के रूप में विकसित हुआ। 7वीं शताब्दी में यह शिक्षा केन्द्रों में सर्वोपरि अर्थात् शिखर पर था।

(2) तक्षशिला विश्वविद्यालय- तक्षशिला वर्तमान पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर से लगभग 35 किमी. की दूरी पर स्थित था। वैदिक काल से ही यह शिक्षा का प्रमुख केन्द्र माना जाता था।

(3) विक्रमशिला विश्वविद्यालय-यह विश्वविद्यालय मगध में गंगा तट पर एक पहाड़ी के ऊपर स्थित था तथा इसका निर्माण पालवंश के राजा धर्मपाल ने 8वीं शताब्दी के मध्य में कराया था।

(4) वल्लभी विश्वविद्यालय-वल्लभी गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ के निकट स्थित था। चौथी शताब्दी में यह मैत्रक नरेशों की राजधानी थी। राजधानी के साथ-साथ यह अन्तर्राष्ट्रीय बन्दरगाह और व्यापार का प्रमुख केन्द्र भी था। उस समय इस नगर में 100 करोड़पति नागरिक रहते थे। नालन्दा विश्वविद्यालय के प्रतिद्वन्दी के रूप में इस विश्वविद्यालय की स्थापना हुई।

(5) मिथिला विश्वविद्यालय-मिथिला मध्य भारत के मिथिला राज्य की राजधानी थी। यह वैदिक काल से ही शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र था ।


बौद्ध काल में गुरु-शिष्य सम्बन्ध (Relations between Teacher and Pupil in Buddhist Period) 


बौद्ध काल में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध वैदिक काल की तरह पवित्र और स्नेहपूर्ण था। छात्र अपने गुरु से पहले उठकर उनके लिए दातून और स्नान करने के लिए जल लाकर रख देते थे। वह अपने शिक्षक के बैठने का स्थान साफ करते थे। मठों एवं विहारों की व्यवस्था में गुरुओं का सहयोग करते थे । गुरु के साथ भिक्षाटन के लिए जाते थे। वे गुरुओं के लिए भोजन की व्यवस्था करते थे एवं शिक्षक के बीमार होने पर उसकी सेवा में तत्पर रहते थे।

गुरु भी शिष्यों को पुत्र की तरह मानते थे। उनके भोजन, वस्त्र, आदि की व्यवस्था करते थे तथा छात्रों का मानसिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास करने के लिए उन्हें ज्ञान प्रदान करते थे। छात्रों के अस्वस्थ होने पर उनके उपचार की व्यवस्था करते थे। इस प्रकार छात्र और शिक्षक एक दूसरे के प्रति प्रेम, आदर और विश्वास रखते थे ।

डा. ए.एस. अल्तेकर के अनुसार, “छात्र और शिक्षकों के बीच सम्बन्ध पिता और पुत्र के समान थे। वे पारस्परिक सम्मान, विश्वास और प्रेम के द्वारा एक-दूसरे से आबद्ध थे।”


बौद्ध कालीन शिक्षा प्रणाली के दोष (Demerits of Buddhist Period Education System) 


बौद्ध शिक्षा प्रणाली अपने समय की श्रेष्ठ प्रणाली मानी जाती थी, परन्तु किसी भी प्रणाली में गुणों के साथ-साथ कुछ दोष भी होते हैं। बौद्ध कालीन शिक्षा प्रणाली के दोष निम्नलिखित है--

(1) मठों व विहारों में कठोर नियम-बौद्ध शिक्षा केन्द्रों में जो नियम थे, वे बहुत कठोर थे। छात्र इन नियमों से भयभीत होकर शिक्षा बीच में ही छोड़ देते थे। लोकतन्त्र में बालकों के लिए ऐसे कठोर नियमों की व्यवस्था नहीं की जानी चाहिए जिनसे छात्रों के मन पर दुष्प्रभाव पड़े।

(2) स्त्री शिक्षा का ह्रास - बालिकाओं को भी बालकों की तरह शिक्षा प्राप्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी परन्तु शिक्षण संस्थाओं के कठोर नियमों के कारण बालिकाएं इन शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश नहीं लेती थी जिससे स्त्री शिक्षा का पतन शुरू हो गया था।

(3) अनुचित शिक्षा संगठन-बौद्ध काल में वैसे तो शिक्षा के दो स्तर थे- प्राथमिक व उच्च, परन्तु साथ ही उच्च शिक्षा के बाद भिक्षु शिक्षा की भी व्यवस्था थी जबकि शिक्षा का संगठन मनोवैज्ञानिक आधार पर होना चाहिए जिससे सभी को एक समान शिक्षा प्राप्त हो सके।

(4) सैन्य शिक्षा का अभाव- बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध अहिंसा के समर्थक थे, वे हिंसा में विश्वास नहीं करते थे। इसलिए उन्होंने बौद्ध कालीन शिक्षा केन्द्रों में सैनिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की। किसी भी देश में सुरक्षा की दृ ष्टि से सैनिक शिक्षा की व्यवस्था होना अनिवार्य है परन्तु बौद्ध काल में इसकी कोई व्यवस्था नहीं थी।

(5) धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत बौद्ध धर्म की शिक्षा-बौद्ध शिक्षा केन्द्रों में धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था की गई थी परन्तु विडम्बना यह थी कि इस धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत केवल बौद्ध धर्म की शिक्षा और उसके प्रचार व प्रसार की शिक्षा ही छात्रों को प्रदान की जाती थी।

इस्लामिक / मध्य कालीन शिक्षा (ISLAMIC / MEDIEVAL PERIOD EDUCATION) 


इस्लामिक / मध्यकालीन शिक्षा की मुख्य विशेषताएँ (Salient Characteristics of Islamic/Medieval Period Education)


भारत पर मुस्लिमों के आक्रमणों और तदुपरांत देश में मुस्लिम शासन की स्थापना के कारण प्राचीन शिक्षा प्रणाली अतीत के गर्त में समाने लगी और एक नई शिक्षा प्रणाली का उद्भव हुआ। मुस्लिम शिक्षा प्रणाली लगभग 600 वर्षों तक इस देश में प्रचलित रही। इस शिक्षा प्रणाली में कुछ विशेषताएं देखने को मिलती हैं जो इस प्रकार है-

(1) निःशुल्क शिक्षा - इस काल में मकतबों एवं मदरसों में निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था थी। इसमें शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। इन संस्थाओं के व्यय का सम्पूर्ण भार संचालकों, संस्थापकों या धनी व्यक्तियों द्वारा वहन किया जाता था।

(2) व्यावहारिक शिक्षा- मुस्लिम लोगों का परलोक एवं पुनर्जन्म में कोई विश्वास नहीं था इसलिए ये शिक्षा को आध्यात्मिक विकास और मोक्ष प्राप्ति का साधन नहीं मानते। थे। इनका विश्वास था कि जीवन इसी संसार में है और इस कारण शिक्षा द्वारा व्यक्ति को इस जीवन हेतु तैयार किया जाना चाहिए। इसी विचार से प्रेरित होकर इन्होंने शिक्षा को व्यावहारिक रूप प्रदान किया।

(3) कक्षा-नायकीय पद्धति- इन शिक्षा-संस्थाल 群 कक्षा-नायकीय पद्धति का प्रचलन था। इस पद्धति में उच्च कक्षाओं के योग्य छात्रों को नायक बनाया जाता था जो निम्न कक्षा के छात्रों का शिक्षण कर, अध्यापक के अध्यापन कार्य में सहायता देते थे।

(4) शिक्षक की स्थिति-शिक्षा के प्रति लौकिक दृष्टिकोण के कारण, मुस्लिम युग में शिक्षक की स्थिति में बहुत परिवर्तन हो गया था। इन शिक्षकों की स्थिति, प्राचीन भारतीय शिक्षकों के समान उच्च नहीं थी।

(5) व्यक्तिगत सम्बन्ध प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति के समान इस शिक्षा पद्धति में भी गुरु-शिष्य का सम्पर्क व्यक्तिगत था। शिक्षक अपने विचारों तथा आदर्शों से छात्र को प्रभावित करता था तथा छात्र की प्रतिभा, कुशलता तथा योग्यता की वृद्धि में योग देता था ।


इस्लामिक / मध्यकालीन शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Islamic/Medieval Period Education) 


मुस्लिम शिक्षा के उद्देश्य इस प्रकार हैं-

(1) ज्ञान का प्रसार-इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद साहब ज्ञान को, निजात (मुक्ति) पाने का आधार मानते थे इसलिए इन्होंने प्रत्येक मुस्लिम के लिए ज्ञान को प्राप्त करना अनिवार्य बताया था। इसको ध्यान में रखकर ही मुस्लिम शासकों ने भौतिक व आध्यात्मिक दोनों प्रकार के ज्ञान का प्रसार किया।

(2) इस्लाम धर्म का ज्ञान प्रदान करना- प्रत्येक मुसलमान व्यक्ति का प्रमुख कर्त्तव्य था कि वह इस्लाम धर्म ज्ञान का प्रचार व प्रसार करे क्योंकि इस्लाम धर्म की अपनी संस्कृति थी, इसलिए इस्लाम धर्म के प्रचार एवं प्रसार पर बल दिया गया। शिक्षा की व्यवस्था मकतब और मदरसों में की गई जो मुस्लिम शिक्षा प्रणाली की शिक्षण संस्थाएं थीं।

(3) अच्छे चरित्र-निर्माण पर बल मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का एक प्रमुख उद्देश्य छात्रों में अच्छे चरित्र का निर्माण करना था। मुस्लिम शिक्षण संस्थाओं में छात्रों में अच्छी आदतों और चरित्र के निर्माण के लिए शिक्षकों के द्वारा निरन्तर प्रयास किए जाते थे। इस काल में भी छात्रों में अच्छे चरित्र के निर्माण को महत्त्व दिया गया था जैसा कि वैदिक काल व बौद्ध काल में भी दिया जाता था।

(4) सांसारिक विलासिता की प्राप्ति-मुस्लिम शासक विलासितापूर्ण जीवन जीने में विश्वास रखते थे। इस्लाम के अनुसार मानव जीवन में भौतिक ऐश्वर्य की प्राप्ति ही महत्त्वपूर्ण है। मध्यकालीन मुस्लिम शासक सांसारिक ऐश्वर्यपूर्ण तथा भोग विलासितापूर्ण थे और उन्होंने शिक्षा के द्वारा भी इसको बढ़ावा दिया।

(5) इस्लाम धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करना- मुस्लिम शिक्षा का उद्देश्य हिन्दुओं को इस्लामिक सभ्यता और संस्कृति की तरफ आकर्षित करना था। चूँकि मुस्लिम शासक यह अच्छी तरह जानते थे कि जब तक हिन्दुओं का दृष्टिकोण परिवर्तित नहीं होगा, तब तक वह इस्लाम धर्म और संस्कृ ति का प्रचार और प्रसार नहीं कर पाएंगे इसलिए उन्होंने सबसे पहले भारतीयों पर इस्लामी सभ्यता और संस्कृति का प्रभाव छोड़ने के प्रयास शुरू किए जिससे वह अपनी सभ्यता, धर्म और संस्कृति का प्रचार व प्रसार कर सकें।


इस्लामिक / मध्यकालीन शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods of Islamic/ Medieval Period) 

मध्यकाल में शिक्षा मौखिक रूप में ही दी जाती थी। छात्रों में स्वाध्याय विधि का विकास करने पर बल दिया जाता था। साथ ही अनुकरण करने, अभ्यास करने तथा स्मरण विधि के प्रयोग पर भी बल दिया जाता था। उच्च स्तर पर व्याख्यान व भाषण विधि के साथ ही प्रयोग विधि, तर्क विधि, प्रदर्शन विधि का प्रयोग भी शिक्षा देने के लिए किया जाता था। यहाँ इन सब विधियों का संक्षिप्त विवरण निम्न है-

(1) व्याख्यान या भाषण विधि-उच्च स्तर की शिक्षा प्रदान करने के लिए व्याख्यान या भाषण विधि का प्रयोग किया जाता था । व्याख्यान का अर्थ है सम्बन्धित विषय-वस्तु की व्याख्या करना ।

(2) प्रयोग विधि-इस विधि का प्रयोग प्रायोगिक विषयों की शिक्षा देने के लिए किया जाता था। शिक्षक सर्वप्रथम वस्तु अथवा क्रिया का प्रदर्शन करके दिखाते थे। छात्र उसे देखकर उसके स्वरूप को समझकर खुद इस विधि का प्रयोग करके सीखते थे।

(3) तर्क विधि - इस विधि का प्रयोग दर्शन एवं तर्कशास्त्र जैसे विषयों के शिक्षण के लिए किया जाता था। इसमें प्रत्यक्ष उदाहरणों तथा इस्लामिक सिद्धान्तों को विशेष महत्त्व दिया जाता था।

(4) अनुसरण, अभ्यास तथा स्मरण विधि- इन विधियों का प्रयोग प्राथमिक स्तर पर किया जाता था। शिक्षक, कुरान शरीफ की आयतों, अक्षरों और पहाड़ों का उच्चारण करते थे, छात्र (शागिर्द) सामूहिक रूप से उनका अनुकरण करते थे, उन्हें कण्ठस्थ करते थे।

(5) स्वाध्याय विधि-मुस्लिम शासकों ने अपने धर्म के ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार कराई और इनके रखने के लिए बड़े-बड़े पुस्तकालयों का निर्माण कराया। छात्र इन पुस्तकालयों में बैठकर इन पुस्तकों का अध्ययन करते थे, जिससे उनमें स्वाध्याय का विकास होता था ।


स्वतन्त्रता के पूर्व शिक्षा (EDUCATION IN PRE INDEPENDENCE PERIOD)

मिशनरी स्कूल की विशेषताएँ- 

(1) मिशनरी स्कूलों में आधुनिक शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाता था। ।

2) इन स्कूलों में प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा का माध्यम हिन्दी थी ।

(3) इन स्कूलों में ईसाई धर्म की शिक्षा अनिवार्य रूप से प्रदान की जाती थी।

(4) इन स्कूलों में बालकों को पुस्तकें तथा लेखन सामग्री निःशुल्क प्रदान की जाती थी। 

(5) कक्षा शिक्षण प्रणाली का प्रारम्भ करने का श्रेय इन्हीं विद्यालयों को है।

मैकाले भारतीय शिक्षा का अग्रदूत- भारत में पश्चात्य शिक्षा के प्रचार के लिए लॉर्ड मैकाले का योगदान अभूतपूर्व है। इसलिए इतिहासकारों ने मैकाले को भारत में पाश्चात्य शिक्षा के विकास में पथ-प्रदर्शक एवं आधुनिक शिक्षा का अग्रदूत कहा है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत हैं-

(1) मैकाले का विवरण-पत्र भारतीय शिक्षा में ऐतिहासिक महत्त्व का शैक्षिक अभिलेख कहा जाता है क्योंकि भारत में शिक्षा की स्थायी नीति निर्धारित करने का श्रेय इसे ही जाता है।

(2) भारत में अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम निर्धारित कराकर मैकाले ने बहुत समय से चले आ रहे प्राच्य-पाश्चात्य विवाद का अन्त करा दिया था। 

(3) अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार में मैकाले ने अभूतपूर्व कार्य किया। इससे पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञानों का द्वार भारत के लिए खुल गया। परिणामस्वरूप भारत ने बहुमुखी प्रगति की। 

(4) मैकाले ने भारतवासियों के लिए पाश्चात्य साहित्य एवं विज्ञान को उपयोगी बताकर उसके अध्ययन पर बल दिया था। इससे भारत में लोगों को पाश्चात्य साहित्य एवं विज्ञानों का ज्ञान प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ। अतः भारत ने शिक्षा, विज्ञान एवं औद्योगिक क्षेत्र में विशेष उन्नति की।

(5) मैकाले धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त का पक्षपाती था । इसीलिए उसने भारत में धर्म के विषय में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया था। 

(6) मैकाले भारतवासियों में व्याप्त रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास और धार्मिक संकीर्णता को नष्ट कराकर उन्हें आधुनिक पाश्चात्य ज्ञान दिलाना चाहता था ।

(7) अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करके बहुत से भारतीयों ने राजकीय पदों पर नौकरियाँ न करके देश की जनता को शिक्षित करने का गुरुतर दायित्व अपने कन्धों पर लिया और उन्हें अज्ञानता के अन्धकार से विमुक्त किया था।

वुड के घोषणा-पत्र की विशेषताएँ (Characteristics of Wood's Despatch) 

वुड के घोषण पत्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है-

(1) वुड के घोषणा पत्र में निस्पन्दन सिद्धान्त को समाप्त कर दिया गया।

(2) समाज के सभी वर्गों के लिए शिक्षा की व्यवस्था । 

(3) शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए जनशिक्षा विभाग की स्थापना की गई। 

(4) सम्पूर्ण देश में क्रमबद्ध विद्यालयों प्राथमिक मिडिल स्कूल → हाईस्कूल कॉलेज → विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। 

(5) शिक्षा के पाठ्यक्रम में भारतीय भाषाओं को स्थान दिया गया ।

(6) ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा को बढ़ावा दिया गया। 

(7) कमजोर एवं निर्धन छात्रों को छात्रवृत्ति ।

वुड के घोषणा-पत्र के दोष इस प्रकार हैं- 

(1) प्राच्य साहित्य की उपेक्षा- इस घोषणा-पत्र में प्राच्य साहित्य को महत्त्वपूर्ण माना गया किन्तु शिक्षा में इनकी उपेक्षा की गई।

(2) स्वतन्त्र शिक्षा व्यवस्था की समाप्ति घोषणा-पत्र में शिक्षा पर पूर्ण रूप से कम्पनी का उत्तरदायित्व घोषित कर दिया गया जिससे कम्पनी ने पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की संस्थाओं को प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया और भारतीय शिक्षण संस्थाओं को इससे किसी भी प्रकार का फायदा नहीं हुआ।

(3) शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा - प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था तो देशी तथा पाश्चात्य दोनों के माध्यम से करना स्वीकार किया परन्तु उच्च शिक्षा के लिए माध्यम के रूप में अंग्रेजी को अनिवार्य कर दिया गया जिससे कि उच्च शिक्षा में अंग्रेजी को स्थायित्व मिल गया।

(4) पाठ्यक्रमों में अंग्रेजी साहित्य पर बल-वुड के घोषणा-पत्र में पाठ्यक्रम में पाश्चात्य साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने की वकालत की गई थी। इस कारण भारत में पाश्चात्य साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाने लगी।

हण्टर कमीशन की विशेषता(Features of Hunter Commission) 

हण्टर कमीशन की विशेषताएँ निम्नलिखित थी- 

(1) आयोग ने माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा का भार कुशल एवं धनी भारतीयों पर छोड़कर इस स्तर की शिक्षा के प्रसार को बढ़ावा दिया।

(2) सहायता अनुदान की शर्तें उदार और सरल थी जिसके कारण विद्यालयों की स्थापना तथा संचालन करने में बहुत मदद मिली।

(3) आयोग ने पिछड़ी जाति के बच्चों की शिक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए।

(4) आयोग ने बुद्ध के घोषणा-पत्र के केवल उन्हीं सुझावों को स्वीकार किया जो भारतीय शिक्षा के लिए आवश्यक थे।

(5) इण्टर कमीशन ने प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था स्थानीय निगमों के हाथ में सौंपकर इसका मार्ग प्रशस्त किया। 

(6) इस कमीशन ने प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च शिक्षा का एक निश्चित पाठ्यक्रम दिया।

(7) कमीशन द्वारा स्त्री-शिक्षा व मुस्लिम शिक्षा के विकास के लिए दिए गए सुझाव ठोस थे।

(8) प्राथमिक व माध्यमिक अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाएँ खोलने का सुझाव बहुत लाभकारी था।

वुड-ऐबट रिपोर्ट के सुझाव एवं विशेषताएँ (Suggestions and Characteristics of Wood-Abbott Report)

वुड-ऐबट रिपोर्ट के सुझाव एवं विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 

(1) प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक शिक्षा की अवधि 4-4 वर्ष होनी चाहिए और स्नातक शिक्षा 3 वर्ष की होनी चाहिए।

(2) इन विद्यालयों का नियमित रूप से निरीक्षण कराया जाए। इसकी व्यवस्था करने के लिए निरीक्षकों की संख्या बढ़ाई जाय ।

(3) प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करने वाले स्थानीय निकायों के शैक्षिक रिकॉर्ड पर ध्यान दिया जाए।

(4) शिशु शिक्षा की व्यवस्था की जाए एवं इन स्कूलों में प्रशिक्षित महिला अध्यापिकाओं की नियुक्ति की जाए ।

(5) प्राथमिक स्तर पर पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा बालकों की रुचियों और क्रियाओं के विकास पर ध्यान दिया जाए। 

(6) माध्यमिक कक्षाओं में अंग्रेजी के अध्ययन पर बल नहीं दिया जाए।

स्वतन्त्रता के पश्चात् शिक्षा (EDUCATION IN POST INDEPENDENCE PERIOD)

स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त जितना असंतोष जनता में उच्च शिक्षा के प्रति था उतना ही माध्यमिक शिक्षा के प्रति भी था। माध्यमिक शिक्षा की समस्याओं का अध्ययन कर उसमें सुधार करने हेतु एक समिति गठित करने की आवश्यकता महसूस हुई। उस समय माध्यमिक शिक्षा एकमार्गी (Unilateral) थी। इस शिक्षा को प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों के सामने विश्वविद्यालयी शिक्षा में प्रवेश लेने तथा नौकरी करने के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं था। इस स्तर पर कोई ऐसी व्यवस्था नहीं थी जिससे विद्यार्थी अपनी रुचि तथा आवश्यकताओं का भी विकास कर सकें। केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड के सुझाव को मानकर सरकार ने 23 सितम्बर, 1952 में "माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन किया। इसके अध्यवा मद्रास विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ. लक्ष्मणस्वामी मुदालियर थे जो विश्वविद्यालय आयोग के सदस्य भी रह चुके थे। इस आयोग के अध्यक्ष के नाम पर माध्यमिक शिक्षा आयोग को 'मुदालियर आयोग के नाम से भी जाना जाता है।

आयोग की सिफारिशें एवं सुझाव (Suggestions and Recommendations of the Commission)

आयोग ने सर्वप्रथम माध्यमिक शिक्षा की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया तथा सम्पूर्ण माध्यमिक शिक्षा को सार्थक बनाने हेतु उसके प्रत्येक पहलू के सम्बन्ध में अपने विचार प्रस्तुत किए जो इस प्रकार हैं-


(1) प्रत्येक प्रान्त में प्रान्तीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड का गठन किया जाए।

(2) जिन राज्यों में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की स्थापना नहीं हुई है उन राज्यों में अतिशीघ्र इनका गठन किया जाए। 

(3) तकनीकी शिक्षा के सम्बन्ध में तकनीकी शिक्षा बोर्ड की स्थापना की जाए। 

(4) माध्यमिक स्कूलों के लिए निःशुल्क जमीन की व्यवस्था की जाए।

(5) पाठ्यचर्या वास्तविक जीवन से सम्बन्धित हो। 

(6) पाठ्यचर्या स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बनाया जाए। 

(7) पाठ्य-पुस्तकों के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए "उच्चस्तरीय पाठ्य-पुस्तक समिति का प्रत्येक राज्य में गठन किया जाए।

(8) बालिकाओं को शिक्षा प्राप्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता हो । 

(9) बालिकाओं की शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए बालिका विद्यालय खोले जाएं।

10) गृह विज्ञान की शिक्षा की व्यवस्था की जाए।

कोठारी आयोग (Kothari Commission) 

भारत सरकार ने 14 जुलाई, 1964 को 'भारतीय शिक्षा आयोग का गठन किया। इस आयोग के अध्यक्ष विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष प्रो. डी. एस. कोठारी थे। इसलिए इस आयोग को अध्यक्ष के नाम पर कोठारी आयोग भी कहा जाता है। आयोग के अन्य सदस्यों में श्री पी. एन. कृपाल, श्री एच. एल. एलविन, प्रो. सतदोशी इहारा, श्री आर. ए. गोपालस्वामी, डॉ. वी. एस. झा, डॉ. बी. पी. पाल, डॉ. त्रिगुण सेन, प्रो. एस. ए. सूमोवस्की, श्री एम. जीन थॉमस, श्री जे. पी. नायक, श्री जे. एफ. मैक्डूगल आदि थे।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 (National Education Policy, 1986)

(1) इस नीति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता थी कि इसमें सम्पूर्ण देश के लिए एक समान शैक्षिक ढाँचे को स्वीकार किया गया तथा अधिकांश राज्यों में 10+2+3 की संरचना को अपनाया गया।

(2) शिक्षा के सार व उसकी भूमिका के विषय में नीति में कहा गया कि सभी के लिए शिक्षा आवश्यक है। शिक्षा वर्तमान एवं भविष्य के लिए अपनी आय का अद्वितीय निवेश है। 

(3) महिलाओं, अनुसूचित जातियों जन जातियों एवं वंचित समूहों के लिए शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराना। 

(4) तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा को महत्त्व देना ।



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