फसल चक्रण (Crops Rotation)
किसी खेत में एक निश्चित समय में एक फसल के बाद दूसरी फसल लेने की क्रिया को, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट न होने पाये, 'फसल चक्रण' कहते हैं ।
"The growing of different crops on a piece of land in a preplanned succession is called as crops rotation."
अर्थात् भूमि के किसी निश्चित भाग पर नियत समय में फसलों का इस क्रम से बोया जाना कि भूमि की उर्वरा शक्ति भी कम न होने पाये और उपज भी अच्छी मिले इस प्रकार की अदला-बदली फसल चक्रण है ।
फसल चक्रण के सिद्धान्त (Principles of Crop Rotation) - फसलों से अच्छी पैदावार लेने के साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति सुरक्षित बनाये रखने के लिए और अधिकतम आर्थिक लाभ कमाने के लिए निम्नलिखित सिद्धान्त अपनाना चाहिए-
(1) गहरी जड़ों वाली फसल के बाद उथली जड़ों वाली फसल- गहरी जड़ वाली फसलों के बाद उथली जड़ वाली फसलें बोनी चाहिए। इससे दोनों फसलों की पैदावार अच्छी होती है। इसमें दोनों फसलें एक ही सतह से भोजन न लेकर विभिन्न सतहों से अपना भोजन प्राप्त करती है। इसमें दोनों फसलों को उचित मात्रा में भोज्य पदार्थ मिल जाता है तथा भूमि की सतह जिसकी उर्वरा शक्ति भी अधिक कम नहीं हो पाती । जैसे—मैथी, अरहर के बाद गन्ना कपास के बाद मटर बोना चाहिए ।
(2) फलीदार फसल के बाद फलीहीन फसल-फलीदार फसलें भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है जबकि फलीहीन फसलें उर्वरा शक्ति को कमजोर करती हैं। अतः भूमि को उपजाऊ बनाने वाली फसलें उगाना चाहिए। फलीदार फसलों; जैसे—मटर आदि की जड़ों में छोटी-छोटी गाठें होती हैं, जिन्हें नोड्यूल कहते हैं। इन गाँठों में नाइट्रोजन संग्रहित करने वाला वैसीलस रेडीसिकोला नामक बैक्टीरिया होते हैं। फसल काटने के बाद ये खेत में रह जाते हैं और खेत को काफी उपजाऊ बना देते हैं । अतः मूँग, गवार, लोबिया, सनई आदि के बाद गेहूँ, ज्वार के बाद बरसीम तथा मटर, कपास के बाद मैथी आदि बोना चाहिए ।
(3) अधिक खाद चाहने वाली फसल के बाद कम खाद चाहने वाली फसल- अधिाक खाद चाहने वाली फसलें; जैसे—आलू, तम्बाकू, गन्ना, मक्का आदि को काटने के बाद कम खाद चाहने वाली फसलें बोनी चाहिए क्योंकि फसलों के कटने के बाद भूमि में पर्याप्त मात्रा में खाद शेष रह जाती है जो कम खाद चाहने वाली फसलों को उपयुक्त पोषण प्रदान करती है ।
(4) अधिक पानी चाहने वाली फसल के बाद कम पानी चाहने वाली फसल- फसलों में लगातार अधिक पानी देने से भूमि में वायु संचार रुक जाता है। वायु संचार के कम अथवा बन्द हो जाने से आवश्यक रासायनिकों का आदान-प्रदान रुक जाता है जिससे लाभदायक बैक्टीरिया अपनी क्रियाशीलता खो बैठते हैं। ऐसी भूमि में हानिकारक खरपतवार पैदा हो जाते हैं और फसलों की पैदावार कम हो जाती है। अतः अधिक पानी चाहने वाली फसलों के बाद कम जल वाली फसलें बोनी चाहिए। जैसे—धान के पश्चात् चना बोना चाहिए।
(5) अधिक निराई-गुड़ाई चाहने वाली फसल के बाद कम निराई-गुड़ाई चाहने वाली फसल – जैविक कृषि विधि द्वारा अथवा रासायनिक विधियों द्वारा खरपतवार नष्ट कर दिये जाएँ तो भूमि में भू-परिष्करण तथा निराई-गुड़ाई की बहुत कम आवश्यकता पड़ती है । अधिक गुड़ाई-जुताई करने से भूमि की संरचना पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिससे फसलों की उपज धीरे-धीरे कम होने लगती है। अतः अधिक निराई-गुड़ाई चाहने वाली फसलों के बाद कम निराई गुड़ाई वाली फसलें बोनी चाहिए। जैसे—आलू के बाद तम्बाकू, बाद मटर अथवा चना आदि। मक्का के बाद मटर अथवा चना आदि l
(6) भूमि को कम जीवांश प्रदान करने वाली फसल के बाद अधिक जीवांश वाली फसल – ज्वार, अरहर, कपास आदि फसलें जो अपनी पत्तियाँ भूमि पर अधिक छोड़ती है। मे पत्तियाँ भूमि में सड़कर जीवांश में परिवर्तित हो जाती हैं जिससे आगे बोई जाने वाली आवश्यकता होती है, अतः बाद में बोना चाहिए।
(7) भूमि में विषैले पदार्थों को बढ़ने से रोकना-फसलों को अदल-बदल कर इस प्रकार लगाना चाहिए जिससे कि भूमि में विषैले पदार्थ न बढ़ने पायें ।
(8) कीट-पतंगों का प्रकोप रोकना - फसलों का हेरफेर इस प्रकार करना चाहिए कि दो फसलें जिनमें फसल को नष्ट करने वाले कीट-पतंगें एवं बीमारियाँ एक ही हों उन्हें लगातार नहीं लेना चाहिए। ऐसा करने से एक फसल का प्रभाव दूसरी पर पड़ता है और भूमि की उर्वराशक्ति भी कम हो जाती है।
(9) कृषि साधनों का पूर्णरूपेण उपयोग - फसलों का हेरफेर इस प्रकार करना चाहिए कि मजदूर और बैलों की शक्ति का अधिक से अधिक प्रयोग हो सके ।
(10) भूमि को खाली छोड़ना-भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए उस पर लगातार फसलें नहीं लेना चाहिए। उसे एक या दो मौसम खाली छोड़ देना चाहिए। इस समय खेत में जुताई करते रहना चाहिए, जिससे खरपतवार नष्ट हो जाए और भूमि में वायु का संचार बढ़ जाए।
(11) कृषक की योग्यता-जिस प्रकार एक अयोग्य डॉक्टर एक बीमार को मार सकता है, उसी प्रकार एक कम जानकार कृषक देश को भूखा मार सकता है।" अध- कुचला ज्ञान हमेशा दुःखदायी होता है। अतः कृषक को वे ही फसलें हेर-फेर करनी चाहिए जिनकी रोग, कीटों एवं प्रबन्ध के बारे में उसे पूरा ज्ञान हो ।
जुताई (Ploughing)
भूमि को फसल बोने योग्य बनाने की क्रिया को जुताई कहते हैं ।
"बीज पड़े फल अच्छा देत, जितना गहरा जोते खेत ।" खेती के लिए खेत की जुताई का विशेष महत्त्व है। खेती की जितनी जुताई होगी उतनी फसल प्राप्त होगी । जुताई से मिट्टी को भुरभुरा बनाया जाता है तथा गहराई तक कर मिट्टी को वायु के सम्पर्क में लाया जाता है। जुताई का मुख्य उद्देश्य भूमि को मुलायम मना ताकि उसमें वायु, गर्मी और सर्दी का भली-भाँति आवागमन हो सके और वह पानी खकर उसे संचित कर सके । हल चलाना, खोदना, पाटा देना तथा जोत के अन्य यन्त्रों से भूमि को उपजाऊ बनाना सभी जुताई के अन्तर्गत आता है । जुताई हल द्वारा की जाती है । उत्तम जुताई 16 से 20 बार तक की जाती है। हल चलाते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-
(1) हल चलाने से पहले बैलों को बराबर कर लेना चाहिए। बैलों को आगे-पीछे हाँकने से बैल के कंधों में मोच आने का भय रहता है ।
(2) हल चलाते समय हल धरती से ऊपर नहीं उठना चाहिए। हल के ऊपर उठने से हल की पैनी फाल बैलों के पैरों में लग सकती है ।
(3) हल चलाते समय मुठिया पर हाथ दबाकर रखना चाहिए अन्यथा हल फिसलने का भय रहता है, जिससे कभी-कभी बैलों के पैरों में फाल की नोंक लग जाती है ।
(4) कुँड बनाते समय हल कहीं कम या अधिक नहीं लगना चाहिए यदि हल सीमा से अधिक लगेगा तो हल को खींचने को अधिक बल लगाना पड़ेगा, जिससे बैल शीघ्र थक जायेंगे और जुताई में बाधा पड़ेगी ।
(5) लोहे के हल को मोल्ड बोर्ड की ओर झुकाकर चलाना चाहिए । जोतते समय इ को सीधा रखा जाता है तथा फाल की ओर झुकाया जाता है। कड़ एक दूसरे से मिली हुई सीधे रहनी चाहिए । इन हलों से सीधी जुताई होती है तथा जगह भी नहीं छूटती ।
(6) पहली जोत में मेंड देकर कभी हल नहीं चलाना चाहिए । इससे बैलों के कन्धों में
झटका लग सकता है । मेंड के बगल वाली जगह को फावड़े या कुदाली से गोड़ देना चाहिए।
(7) हल को दाहिने हाथ में पकड़कर और बाँये हाथ में चपकी या साँठे द्वारा बैलों को संकेत से चलाना चाहिए। हल को सीधा एवं हलाइयों में बाँटकर चलाना चाहिए। यदि हल चलाने में कोई अवरोध मालूम पड़े तो बैलों को वहीं रोक देना चाहिए और हल को सन्तुलित कर लेना चाहिए।
बुवाई(Sowing)
बीजों का चुनाव-बीज नये पौधों को जन्म देते हैं, अतः इनका चुनाव करते ध्यान रखना चाहिए कि वे स्वस्थ एवं मिलावट रहित तथा उनमें किसी भी प्रकार का रोम होना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस क्षेत्र एवं समय के ि बीजों की जो अगेती मध्या अथवा पिछेती प्रजातियाँ कृषि विभाग द्वारा सुझाई गई बोना चाहिए।
बीजों को पानी से भरे बर्तन में डालने पर जो बीज बर्तन की तली में बैठ जाते हैं, हैं। इसके विपरीत जो पानी के ऊपर तैरते रहते हैं, खराब होते हैं ।
पादप अभिजनन द्वारा बीजों की ऐसी किस्में तैयार की जाती हैं जो पौधों के रोगों नाशक जीवों का प्रभावी रूप से प्रतिरोध कर सकें। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत दो विभिन्न अथवा एक ही जाति के दो वंशों के मध्य संकरण कराकर अच्छे एवं नई किस्मों के पौधो तैयार किया जाता है। इस विधि द्वारा उत्पन्न नई किस्मों के बीजों को धोकर अपे वाली फसलों को चुनने से उत्तम गुणों वाली उपजों की प्राप्ति होती है ।
बीज बोने की विधियाँ(Seed Sowing Methods)
बीज बोने की निम्नलिखित विधियाँ प्रयोग में लायी जाती है.
(1) छिटकवाँ विधि - यह विधि उन स्थानों पर काम में लायी जाती है, जहाँ फसलों हेतु अच्छी नमी होती है। इस विधि में बीजों को खेत में छिटका कर हल चलाकर पद फेर देते है
(2) हाथ से बुवाई - इस विधि में एक व्यक्ति हल के कूड़े के पीछे से थोड़े-लिए सिंघ हाथ से डालता रहता है। इस तरह सारे खेत में बीज कूड़ों में बो दिया आता है। इसके बाद पठ फेर दिया जाता है।
(3)नरई द्वारा बुवाई—यह एक प्रकार की देशी सीडड्रिल होती है। इसकी सहायता ठीक जगह पर भूमि में 5 सेमी. से 8 सेमी. की गहराई तक गिरता है और साथ ही मिट्टी से ढका जाता है ।
(4) सीडड्रिल – यह दो प्रकार की होती है । प्रथम बैलों से चलाई जाती है और दूसरी ट्रेक्टर आदि की सहायता से प्रयोग की जाती है इसमें बीज रखने के लिए एक बॉक्स होता है। उसमें छोटे-छोटे ट्यूब लगे होते हैं । ये ट्यूब नीचे की तरफ सीडड्रिल की कड़ बनाने वाली काली के पास बीज को गिराते हैं जो सीडड्रिल मशीन से चलती है, उसमें बीज डालने के लिए छोटी-छोटी धातु की बनी हुई प्याली होती हैं। जैसे-जैसे मशीन आगे चलती जाती है वैसे-वैसे वह बीज की उपयुक्त मात्रा ट्यूब में छोड़ती रहती है। कुछ किसान बैलों से चलाने वाली सीडड्रिल का प्रयोग करते हैं।
सिंचाई (Irregation)
कृत्रिम विधियों द्वारा फ़सलों की वृद्धि एवं उपज बढ़ाने के लिए जल का जो प्रयोग किया जाता है, उसे सिंचाई कहते हैं। सिंचाई भूमि को जल देने की एक प्रक्रिया है जिसमें फसल को उचित पानी दिया जाता है जिससे फसल एवं पौधों की भरपूर पैदावार हो सके ।
सिंचाई का महत्त्व (Importance of Irregation)
सिंचाई का निम्नलिखित महत्त्व है-
(1) पौधों में होने वाली क्रियाओं; जैसे—प्रकाश संश्लेषण, श्वसन एवं वाष्पोत्सर्जन आदि के लिए आवश्यक है।
(2) पौधों को खाद्य-पदार्थ एवं खनिज लवण पानी से ही प्राप्त होते हैं । ये खाद्य पदार्थ पानी में घुलकर पौधों के मूलरोमों द्वारा अवशोषित किये जाते हैं ।
(3) पौधों में 90% जल मौजूद रहता है।
सिंचाई के उद्देश्य (Aims of Irregation)
भूमि की सिंचाई के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-
(1) वर्षा जल का अपर्याप्त होना—जिन स्थानों पर वर्षा अपर्याप्त होती है अथवा वर्षाका सारा जल भूमि की तह में चला जाता है, उन स्थानों पर पौधों की सिंचाई आवश्यक है।
(2) वर्षा का असमान वितरण-वर्षा के असमान वितरण से कहीं पर बाढ़ आ जाती है और कही पर सूखा पड़ जाता है । जिन स्थानों पर सूखा पड़ जाता है वहाँ सिंचाई की आवश्यकता होती है ।
(3) रबी एवं जायद की फसलों के लिए-रबी एवं जायद की विभिन्न फसलों के लिए पानी की आवश्यकता सिंचाई द्वारा ही पूरी की जाती है ।
(4) जीवांश को सड़ाना—भूमि में पड़े हुए मृत पेड़-पौधों एवं जन्तुओं को सड़ाने के लिए सिंचाई आवश्यक है ।
(5) पाले से रक्षा-सर्दियों में जलवायु का ताप बहुत कम हो जाता है, तब पाला पड़ने का भय रहता है । अतएव ऐसी स्थिति में खेतों में पानी देने से फसल को पाला नहीं मारता ।
(6) कीड़ों से रक्षा - खेतों में सिंचाई करने से खेतों के बिलों में रहने वाले जीवन खेतों से बाहर चले जाते हैं ।
(7) पौधों के लिए आवश्यक नमी की पूर्ति-सिंचाई द्वारा पौधों के लिए आवश्यक नमी की पूर्ति होती है ।
(8) अनावश्यक लवणों का बाहर निकलना-खेतों में अनावश्यक लवणों के बने रहने से फसल पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। अतः हानिकारक लवणों के प्रभाव को सिंचाई द्वारा रोका जाता है ।