Rahulwebtech.COM-Online Share Marketing, Internet Tips aur Tricks in Hindii जल निकास क्या है ? जल निकास विधियों का वर्णन और अधिक सिंचाई से होने वाली हानियां

जल निकास क्या है ? जल निकास विधियों का वर्णन और अधिक सिंचाई से होने वाली हानियां

 जल निकास की सामान्य विधियाँ

भूमि में जल की अधिकता दो प्रकार की पायी जाती है—प्रथम, वे भूमि जिनके ऊपरी तल में पानी भरा रहता है जिसे पृष्ठीय जल भी कहते हैं। दूसरी, वे भूमि जिनमें भूमिगत जल का स्तर ऊँचा रहता है जिसके कारण भूमि के अंदर जल की अधिक मात्रा विद्यमान रहती है जिसे भूमिगत जल भी कहते हैं।
जल निकास क्या है ? जल निकास विधियों का वर्णन और अधिक सिंचाई से होने वाली हानियां

भूमि से अतिरिक्त पृष्ठीय जल तथा भूमिगत जल की निकासी निम्नलिखित विधियों के द्वारा की जाती है-

पृष्ठीय जल-निकास की विधियाँ

भूमि से पृष्ठीय जल के निकास के लिए खुली कच्ची नालियों का प्रयोग किया जाता है। ये नालियाँ मृक्तिका (चिकनी) तथा मृत्तिका दोमट भूमि में अधिक उपयोगी हैं तथा रेतीली भूमि में ये नालियाँ अधिक समय तक टिकाऊ नहीं रहती हैं।

जल-निकास के लिए बनायी गयी नालियों की लम्बाई, चौड़ाई, गहराई तथा दो नालियों के बीच का अंतर भूमि के प्रकार, भूमि के ढाल तथा वर्षा की मात्रा पर निर्भर करता है। भारी मिट्टी (चिकनी) में उपनालियाँ लम्बी, गहरी, कम दूरी पर तथा कम ढाल वाली बनायी जाती हैं जबकि हल्की भूमि (रेतीली) में उपनालियाँ छोटी, कम गहरी, अधिक दूर-दूर तथा अधिक ढाल वाली बनायी जाती हैं। इसके अतिरिक्त जिन स्थानों में में अधिक वर्षा होती है वहाँ नालियाँ स्थायी बनायी जाती हैं। इन निकास नालियों के प्रकार कई बातों पर निर्भर करते हैं फिर भी इसका एक सामान्य माप इस प्रकार होता है- 

नालियों का आकार—ये नालियाँ ऊपर से चौड़ी तथा पेन्द्रे पर कुछ संकरी होती हूँ। नाली को ढाल के लम्बवत् रखते हैं। मुख्य नाली के ऊपरी भाग की चौड़ाई | मीटर से 2 मी. पेन्दे की चौड़ाई 0.75 मी. से 1.25 मी. तथा गहराई 0.050 मीटर से, 1.50 मी. होती है तथा उपनालियों के ऊपरी भाग की चौड़ाई 0.50 मी. से 1.25 मी., पेन्दे की 0.30 मी. से 0.60 मी. तथा गहराई 0.3 मी. से 0:80 मी. तक रखते हैं। इन नालियों की मेंड खेत के धरातल से 0.60 मी. से 0.80 मी. तक ऊँची होनी चाहिए। 

नालियों के प्रकार—पृष्ठीय जल निकास के लिए नालियाँ चार प्रकार की बनाई जा सकती हैं

(i) अस्थायी नालियाँ (Temporary Drains)- ये नालियाँ अस्थाई रूप से बनाई जाती हैं और जल निकास के बाद इन्हें नष्ट कर दिया जाता है। इन नालियों की चौड़ाई, गहराई और लम्बाई आवश्यकता के अनुसार रखी जाती है। इनकी गहराई लगभग 8 से 10 सेमी. रखते हैं।

(ii) स्थायी नालियाँ ( Permanent Drains)—ये नालियाँ ऐसे क्षेत्रों में बनायी जाती हैं जहाँ पर वर्षा अधिक होती है और जल निकास की समस्या बार-बार होती है। ऐसी नालियों को स्थायी रूप से बनाया जाता है तथा इनकी मुख्य नालियों को किसी नाले या नदी से जोड़ दिया जाता है।

(iii) कट आउट नालियाँ (Cut-out Drains) – ये नालियाँ ऐसे स्थानों पर बनायी जाती हैं जहाँ पर नहरें खेतों के तल से ऊँची बहती हैं। ऐसे स्थानों में नहरों से बल अपसरण के द्वारा खेतों में आता रहता है। इस जल को रोकने के लिए नहर तथा खेतों के बीच से 150 मी. चौड़ी तथा लगभग 1 मी. से 1.25 मी. गहरी एक स्थायी नाली खोद देते हैं जिससे अपसरण द्वारा नहर से आने वाला जल इस नाली में चला जाता है तथा खेत में पहुँचता है।

(iv) मेड़ों को काटकर बनाई नालियाँ-जिन स्थानों पर खेत समतल होते हैं तथा मेंड़ों के पास कोई नाला या गहरी नाली होती है तो ऐसे खेतों का पानी खेत की मेंड काटकर निकाल देते हैं।

खुली नालियों के दोष- खुली कच्ची नालियों के मुख्य दोष निम्नलिखित हैं- 

(1) ये नालियाँ भूमि की ऊपरी सतह पर बनाई जाती हैं जिससे कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल कम हो जाता है। 

(2) ये नालियाँ कच्ची होती हैं जिससे इनकी मरम्मत जल्दी-जल्दी करनी पड़ती है जिससे समय, धन और श्रम का अपव्यय हो जाता है। 

(3) इन नालियों में घास तथा खरपतवार उग जाते हैं जिनकी बार-बार सफाई करनी पड़ती है।

अधिक सिंचाई से होने वाली हानियाँ 

खेत में आवश्यकता से अधिक पानी होने पर निम्नलिखित हानियाँ होती हैं-

1. भूमि में वायु संचार में बाधा' -भूमि की किस्म और दशा के अनुसार उसमें 30-70% तक रन्ध्रावकाश होता है। इस रन्ध्रावकाश में जल और वायु दोनों होते हैं। जब आवश्यकता से अधिक पानी भर जाता है तो जल रन्ध्रावकाशों में वायु को हटाकर स्वयं उनका स्थान ग्रहण कर लेता है और इस प्रकार पौधों की जड़ों को श्वसन के लिए वायु नहीं मिलती। इसलिए वे मर जाते हैं हवा के अभाव में मृदा जीवाणु भी मर जाते हैं भिन्न-भिन्न फसलों की जल भरे रहने की स्थिति को सहन करने की क्षमता अलग-अलग होती है।

2. हानिकारक लवणों का एकत्रित हो जाना-जल निकास न होने पर भूमि में जल का स्तर ऊँचा हो जाता है इससे हानिकारक घुलनशील लवण मृदा की नीची तहों में नहीं जा पाते हैं और केशिका क्रिया द्वारा ऊपर की तहों में एकत्रित होते रहते हैं। जब लवणों की मात्रा अधिक हो जाती है तो भूमि ऊसर हो जाती है।

3. मृदा ताप का गिरना-फसलों के उत्पादन में मृदा ताप का बड़ा महत्व है। अंकुरण से लेकर पौधों के विकास तक और भूमि में जीवाणु की कार्यक्षमता मृदा ताप पर ही निर्भर करती है। जब भूमि में अधिकांश समय तक पानी भरा रहता है तो ऊष्मा का अधिकांश भाग पानी को वाष्प के रूप में बदलने में नष्ट हो जाता है और भूमि ठण्डी हो जाती है।

ऊष्मा का अधिकांश भाग पानी को वाष्प के रूप में बदलने में नष्ट हो जाता है और भूमि ठण्डी हो जाती है।

4. जड़ों का उथला होना— जड़ें प्रायः नमी की ओर वृद्धि करती हैं। भूमि की ऊपरी सतह पर ही नमी होने के कारण वे नीचे नहीं आती। जड़ों के उथला रह जाने पर भूमि केवल ऊपरी सतह से पोषक तत्व ले पाती हैं।

5. लाभदायक जीवाणुओं के कार्य में बाधा—आवश्यकता से अधिक जल होने पर भूमि में हवा का संचार न होने के कारण तथा मृदा ताप अनुकूल न होने के कारण भूमि में लाभदायक जीवाणुओं की क्रियाशीलता पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इससे नाइट्रीफिकेशन की क्रिया होती है। फलस्वरूप मृदा की उर्वरता घट जाती है।

6. दल-दल होना— भूमि में अधिक समय तक जल भरा रहने के कारण भूमि दल-दल बन जाती है और उसमें जंगली घास, फूँस, फफूँदी, कीड़े पैदा हो जाते हैं जो कि पौधों के लिए हानिकारक परिस्थितियाँ होती हैं।

7. जुताई- बुवाई का पिछड़ जाना भूमि में अधिक नमी होने पर उसमें औठ बहुत देर से आती है। अतः समय पर फसलों की बुवाई के लिए खेत तैयार नहीं हो पाते हैं। इससे उपज कम हो जाती है।

कम सिंचाई से होने वाली हानियाँ

जल प्रकृति की ऐसी देन है जिसकी आवश्यकता प्रत्येक प्राणी को होती है। पौधों को भी उचित मात्रा में जल मिलना चाहिए। उचित मात्रा में तथा निश्चित समय पर जल न मिलने के कारण पौधों को नुकसान हो सकता है पौधों के लिए जल की आवश्यकता निम्न कारणों से होती है-

(i) जल पौधों की कोशिकाओं में विद्यमान जीव द्रव्य (Protoplasm) का एक आवश्यक अंग हैं पेड़-पौधों का लगभक 84-90 भाग जल ही होता है। जीव द्रव्य में फल की कमी होने पर पौधों की आवश्यक चयापचयी क्रियाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जल की अत्यधिक कमी होने पर पौधा मर भी सकता है। 

(ii) वाष्पोत्सर्जन क्रिया तथा प्रकाश संश्लेषण के लिए पानी आवश्यक है। पानी पौधों की कोशिकाओं को स्फीत रखता है और उनके ताप को नियन्त्रित रखता है।

(iii) पौधे अपना भोजन केवल घोल के रूप में ही लेते हैं। पौधों के भोजन को घोल के रूप में बदलने के लिए इस भोजन को पौधे के एक अंग से दूसरे अंग में पहुँचाने के लिए पानी आवश्यक है।

(iv) बीज के अंकुरण के लिए पानी आवश्यक है पानी के बीज का अंकुरण नहीं हो सकता।


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